पतंग बाज़ी के लिये पहली बार घर से अकेला चल पड़ा दिल्ली से हरिद्वार

आज से लगभघ 9 साल पहले जब मैं 8वीं कक्षा में था, तब पतंबाज़ी का बहुत शौक था। पतंग की उड़ान के साथ मेरे दिल के अरमान भी लंबी उड़ान भरने के लिये तैयार हो रहे थे। छोटी सी उम्र में ही बहुत बड़े बड़े पेच्चे बाज़ मेरे आगे टिक नहीं पाते थे। मेरी पतंग के मांझे की धार और तलवार की धार मानों एक हो, शायद इसीलिए मेरी पतंग के आगे किसी की पतंग टिक नहीं पाती थी। पहले सुना था बड़े-बड़े पेच्चे बाज़ दूर दूर पतंग के पेंच लड़ाने जाते है। तो मैंने भी सोचा इस बार मैं भी जाऊंगा बसंत पंचमी पर हरिद्वार। पश्चमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बसंत पंचमी को बहुत ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लोग वसंत ऋतु का स्वागत सरस्वती पूजा के साथ पतंग उडा कर भी करते है।

वैसे तो हरिद्वार में मेरा ननिहाल भी है तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं थी।लेकिन अभी घर में से किसी का भी हरिद्वार जाने का कार्यक्रम नहीं है, फिर भी मैंने अपनी मम्मी से हरिद्वार अकेले जाने के लिये पूछा तो उन्होंने ये कह कर मना कर दिया के अभी तू छोटा है।

माँ का दिल तो अपने बच्चे की खुशी के लिए तो सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। मेरे फिर दोबारा आग्रह करने पर मम्मी ने कहा चल मैं तेरे साथ चलूंगी। लेकिन मन तो बस आज़ाद पंछी की तरह उड़ जाने की ललख है, वह तो बस अकेले ही आसमान की सैर करना चाहता है। वह अपने पंखों को तोलना चाहता है के कितनी उड़ान भर पायेगा। फिर मैंने मम्मी से कहा मम्मी अकेले जाऊंगा। देखते है के मैं अकेले हरिद्वार पहुँच पाउँगा या नहीं.?? मम्मी ने कहा बेटा अगर नहीं पहुँच पाया तो मैं दूसरा हितेश कहा से लाऊंगी..?? मैंने माँ की ममता को समझते हुए बात बदलते हुए कहा अरे मम्मी पहुँच जाऊंगा थोडा अच्छा तो सोचो बाबा। एक बार जाने तो दो, रेलवे स्टेशन पर मामा लेने आ जायेंगे।

आखिर मम्मी मान गई 2 दिन बाद बसंत पंचमी है। मुझे आज रात 10:30 बजे मसूरी एक्सप्रेस से निकलना है। आरक्षण भी नहीं हुआ और अभी तो सामान भी पैक नहीं हुआ।
मैंने जल्दी जल्दी अपना सामान पैक किया और मांझे वाली चरखियों का मेरा अलग बेग है उसको साथ में रखा।
पता ही नहीं चला कब शाम के 8 बज गए मम्मी खाना भी बना चुकी थी। थोडा खाना खा के थोडा पैक कर लिया, रास्ते में भूख लग गयी तो काम आ जायेगा।

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन
9 बजे घर से निकला पापा भी स्टेशन तक छोड़ने जा रहे थे। बीस मिनट बाद स्टेशन पहुंचे तो बहुत लंबी लाइन थी। मैंने पापा से कहा लाओ पैसे मैं टिकट लेता हूँ। छोटे होने के कारण एक लाइन के बीच में जाकर लग गया और करीब 15 मिनट बाद नम्बर आया। 10 बज चुके थे सही समय से टिकट लेके 16 नम्बर प्लेटफॉर्म पर ट्रेन का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद ट्रेन आयी। मैं ट्रेन में बैठ गया, देखते ही देखते ट्रेन चल पड़ी। मैंने पापा को हाथ हिला कर अभिवादन किया। ट्रेन अब प्लेटफार्म से काफी दूर आ गई थी। और मुझे अभी बैठने के लिए सीट नहीं मिली। थोड़ी देर बाद ऊपर की सीट मिली और मैं सामान साथ में रख कर सो गया। पता ही नहीं चला कब सुबह के 5:30 बज गए थे। ट्रेन रुकी बाहर देखा तो लक्सर स्टेशन आया। हरिद्वार आने में अभी आधा घंटा है। ट्रेन भी काफी खली हो चुकी थी नीचे खिड़की वाली सीट पर बैठ कर तेज़ हवा खाने लगा देखते ही देखते ज्वालापुर स्टेशन आ गया और पता ही नहीं चला कब हरिद्वार आ गया। मामा से पहले ही बात हो गई थी।
हरिद्वार रेलवे स्टेशन

प्लेटफॉर्म पर यात्री


 गीता प्रेस की स्टाल के बाहर मिल गए। उनके साथ बाइक पर बैठ कर नानी के घर पहुंचा सबसे राम राम की नाना नानी के पैर छुए और नाश्ता तैयार था नाश्ता करके सो गया।
फिर आँख खुली 1 बजे खाना उठकर खाना खाया और मामा जो पतंग लेके आये थे उनमे कन्ने बाधने लगा।
फिर शाम को वहां के कुछ दोस्तों के लेके दक्ष मंदिर के लिए निकल पड़ा। दक्ष मंदिर नानी के घर से पास ही है पैदल 5-7 मिनट लगते है। मैं कपडे लेके आया था। क्योंकि गंगा में नहाना जो था।
प्रजापति दक्ष मंदिर

दक्ष मंदिर के घाट पर मैं

नहाने के बाद मंदिर में दर्शन किये। और फिर चले गए पास ही खेत में जहाँ अमरुद के कई सारे पेड़ थे। वहां कई सारे अमरुद तोड़े पन्नी में भरे खेत से बाहर निकल ही दहे थे हमारे 1 साथी को खेत के मालिक ने पकड़ लिया उसके हिस्से के सारे अमुरुद वही रखवा के उसको छोड़ दिया। मुझे क्या मेरे अमरुद तो मेरे पास है  खाते हुए वापिस घर आ गए। रात हो चुकी थी खाना तैयार था। खाना खाया अभी 9 ही बज रहे थे के नाना कहने लगे चलो भई टीवी बंद करो और सो जाओ। मेरे नाना जल्दी सो जाते है। तो मुझे भी जल्दी सोना पड़ा। पर नींद कहा आ रही थी कल बसंत पंचमी जो है बार बार उठकर लाइट जला देता और पतंगों के कन्ने सेट करने लगता। तो नाना ने दांट लगा दी और कहा अब सबह ही उठना है।   ऐसी ही दीवानगी होती है पतंगबाज़ी की। के मुँह ऊपर करके भाग लेते हैं फिर पता ही नहीं चलता कब छत ख़त्म हो गई।
फिर मैं सो गया अब तो सुबह ही उठा 5 बज रहे थे। बिना नहाये धोये चरखी पतंग लेके पहुँच गया छत पर और उडा दी पोने की बड़ी पतन इतनी लंबी करली थी के 1 रील ख़त्म ही होने वाली थी। धीरे धीरे पेंच लड़ने शुरू हुए। जिस छत पर मैं था वहां से तो बस एक ही आवाज गूंज रही थी। ('आई बो, वो कांटा') एक में बाद 12 पतंग एक पतंग से काटी। फिर अचानक किसी ने लंगड़ डाल दिया और पतंग टूट गयी। बड़ा दुःख हुआ पतंग को टूटते हुए देखकर। जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गई उसको ही देखता रहा फिर निचे जाकर खाना खाया नहाया धोया। अब धुप हो रही थी सोचा शाम को उड़ाउंगा पतंग। इतने मां मामी से बात की ऑफ थोड़ी देर बाद सो गया फिर शाम को उडा दी पतंग, यह भी काफी लंबी करदी उससे 8 पेंच काटे फिर यह पतंग कट गई। और मैं निचे आ गया। और खाना खा पी के अपना सामान सारा सेट किया जो दिल्ली से लेके आया था। क्योंकि सुबह जन शताब्दी एक्सप्रेस से वापिस अपने घर दिल्ली जो आना है। इस बार आरक्षण मामा ने पहले ही करवा दिया था। बस सुबह 4:30 उठा नहाया धोया फिर मामा के साथ चल पड़ा स्टेशन ठीक 6:20 पर ट्रेन आई और 6:25 पर चल पड़ी और मैं दिल्ली आ गया।
बस इतनी सी थी ये कहानी।

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