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भारत के गौरवशाली इतिहास को जानने के लिए राजस्थान बहुत बढ़िया जगह है। खैर गढ़ीसर तालाब से हम बाहर आते ही गाड़ी में बैठ गए। और कुछ ही देर में ड्राइवर साहब हमे पटवों की हवेली ले गए। बहुत शानदार हवेली। जो देखते ही मन मोह ले। यह हवेली पटवा परिसर के पास स्थित है और जैसलमेर की पहली हवेली है। इस पीले बलुआ पत्थर की इमारत के निर्माण में 50 साल लग गए। वर्तमान में, यहाँ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का कार्यालय और राज्य कला और शिल्प विभाग स्थित हैं।
छियासठ झरोखों से युक्त ये हवेलियाँ निसंदेह कला का सर्वेतम उदाहरण है। ये कुल मिलाकर पाँच हैं, जो कि एक-दूसरे से सटी हुई हैं। ये हवेलियाँ भूमि से 8-10 फीट ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है व जमीन से ऊपर छः मंजिल है व भूमि के अंदर एक मंजिल होने से कुल 7 मंजिली हैं। पाँचों हवेलियों के अग्रभाग बारीक नक्काशी व अनेक प्रकार की कलाकृतियाँ युक्त खिङ्कियों, छज्जों व रेलिंग से अलंकृत है। जिसके कारण ये हवेलियाँ अत्यंत भव्य व कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर व सुरम्य लगती है। हवेलियों में अंदर जाने के लिए सीढियाँ चढ़कर चबूतरे तक पहुँचकर दीवान खाने (मेहराबदार बरामदा) में प्रवेश करना पडता है। दीवान खाने से लकडी की चौखट युक्त दरवाजे से अंदर प्रवेश करने पर पहले कमरे को मौ प्रथम कहा जाता है। इसके बाद चौकोर चौक है, जिसके चारों ओर बरामदा व छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। ये कमरे 6'x 6' से 8' के आकार के हैं, ये कमरे प्रथम तल की भांति ही 6 मंजिल तक बने हैं। सभी कमरें पत्थरों की सुंदर खानों वाली अलमारियों व आलों ये युक्त हैं, जिसमें विशिष्ट प्रकार के चूल युक्त लकडी के दरवाजे व ताला लगाने के लिए लोहे के कुंदे लगे हैं। पहली मंजिल के कमरे रसोइ, भण्डारण, पानी भरने आदि के कार्य में लाए जातेजबकि अन्य मंजिलें आवासीय होती थ। दीवान खानें के ऊपर मुख्य मार्ग की ओर का कमरा अपेक्षाकृत बङा है, जो सुंदर सोने की कलम की नक्काशी युक्त लकडी की सुंदर छतों से सुसज्जित है। यह कमरा मोल कहलाता है, जो विशिष्ट बैठक के रुप में प्रयुक्त होता है।
प्रवेश द्वारो, कमरों और मेडियों के दरवाजे पर सुंदर खुदाई का काम किया गया है। इन हवेलियों में सोने की कलम की वित्रकारी, हाथी दांत की सजावट आदि देखने को मिलती है। शयन कक्ष रंग बिरंगे विविध वित्रों, बेल-बूटों, पशु-पक्षियों की आकृतियों से युक्त है। हवेलियों में चूने का प्रयोग बहुत कम किया गया है। अधिकांशतः खाँचा बनाकर एक दूसरे को पिघले हुए शीशे से लोहे की पत्तियों द्वारा जोङा गया है। भवन की बाहरी व भीतरी दीवारें भी प्रस्तर खंडों की न होकर पत्थर के बडे-बडे आयताकार लगभग 3-4 इंच मोटे पाटों (स्लैब) को एक दूसरे पर खांचा देकर बनाई गई है, जो उस काल की उच्च कोटि के स्थापत्य कला का प्रदर्शन करती हैं।
पटवों की हवेलियाँ अट्ठारवीं शताब्दी से सेठ पटवों द्वारा बनवाई गई थीं। वे पटवे नहीं, पटवा की उपाधि से अलंकृत रहे। उनका सिंध-बलोचिस्तान, कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था और धन कमाकर वे जैसलमेर आए थे। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटुवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।
मेरा तो यही विचार है जब भी आप जैसलमेर जाये तो पटवा हवेली जरूर जायें।
चित्र देखिये
पटवा हवेली |
बाहर से झरोखे का एक दृश्य |
पटवा हवेली के बाहर मैं |
पत्थर से जड़ी हुई भगवान की एक मुर्ति |
शीशे से बनी मोर की कलाकृति |
बाहर से दीखते झरोखे |
वाह गज़ब |
शीशे से सुसज्जित मोहिनी विलास |
इसके बाद हम जैसलमेर दुर्ग गए। उसका वृत्तान्त पढ़ने के लिए आपको थोड़ा इन्तजार करना होगा।
अगले भाग में जारी..
बहुत ही खूबसूरती के साथ जैसलमेर के पटवा महल का वर्णन एंव चित्रांकन.
ReplyDeleteबधाई हितेश जी।
dhanyawad ji
DeleteDhnywad 🙏
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